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निझरि गइलें अमवाँ

 निझरि गइलें अमवाँ

आलेख-रवीन्द्र नाथ उपाध्याय 


  

आम का मौसम बीत चला। बगीचों में पिछले तीन महीनों से चल रहा उत्सव अब समाप्ति पर है। आम के बगीचे सूने हो गये। छुट्टियाँ बीतीं, विद्यालय खुल गये। गाँव के लड़कों की धमा-चैकड़ी खतम! उन बिचारों ने किताबें कापियाँ और बस्ते संभाले। सावन के फुहारों की उमंग अब नई नवेलियों के हिस्से में आ गई, झूले पड़ गये और कजली के मीठे बोल सुनाई पड़ने लगे, लेकिन आम की बगिया तो उदास हो गई। आषाढ़ सावन के फुहारों से ही तो आमों की मिठास बढ़ी थी लेकिन अब तो सब आम झर गये। पत्तियाँ टुकुर-टुकुर ताक रहीं हैं। डालियाँ रो रही हैं। कोई कोयल कूक उठती है तो लगता है प्राण निकल जायेंगे। हाय! यह क्या हुआ? पेड़ों से आम निझर गये!

ताके पतइया, डँहके टहनियाँ,

कुहुके कोइलिया त निकले परनवाँ,

आइ हो रामा, निझरि गइलें अमवाँ!

ये पंक्तियाँ स्व0 कवि मोती बी. ए. की भोजपुरी कविता ‘निझरि गइलें अमवाँ’ की हैं। इस कविता के संबंध में अपनी ओर से कुछ न कहूँगा। बस, आप मेरे साथ हो लीजिये और कविता की पंक्तियों के माध्यम से लोक जीवन में आम की भूमिका को देखते चलिये।

वसंत ऋतु से ही आम के वृक्ष बौरों से लद जाते हैं। लगता है साक्षात् मदन देवता वसंत का रूप धारण करके आम्र कुंजों में प्रकट हो गये हों। उनके पाँच बाणों में सबसे मादक है आम्रमंजरी। आम्रमंजरियों पर गुंजायमान भ्रमरवृंद को देख कर प्रेमी युगल व्याकुल होने लगते हैं। ‘स्मृतिकौस्तुभ’ और ‘वर्ष क्रिया कौमुदी’ से पता चलता है कि चैत्र शुक्ल 1 को ‘आम्रपुष्पभक्षण व्रत’ का चलन था, जिसमें लोग आम के बौर को खाकर मदन देवता को प्रसन्न करते थे। होलिकादहन में भी आम के बौर काम आते हैं। वसंत पंचमी और होली-दोनों शिशिर के पर्व हैं परंतु हैं ये वसंतागमन के सूचक। जहाँ वसंत वहाँ मदनदेवता और आम्रमंजरी! कालिदास को तो आम्रमंजरी अतिशय प्रिय है लेकिन आम के टिकोरों और पके आमों की ओर कवियों का उतना ध्यान नहीं गया जितना आम्रमंजरी की ओर! लेकिन ग्राम्य जीवन से जुड़े कवि स्व0 मोती बी. ए. का ध्यान कच्चे टिकोरों पर भी है, पके आमों पर भी है और हमारे जीवन में आम के पेड़ की भूमिका पर भी!

मुझे आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के लेख से पता चला कि आम या ‘आम्र’ शब्द ‘अम्र’ या ‘अम्ल’ का रूपान्तर है। अम्र या अम्ल अर्थात खट्टा। आम का खट्टापन भी आम का बैरी हो गया। लोगों ने कच्चे आम को सुखा कर खटाई बनाई और अचार डाल दिया और कोई चटनी बना कर खा गया।

कोमल बदन जब लागल गदाये

सिलवटि पर नूने के संगे पिसाये

काँचे उमिरिया के बैरी बेयरिया

बहुतन के असमय छोड़वलसि जहनवाँ

आइ हो रामा, निझरि गइलें अमवाँ।

(आम का कोमल शरीर जैसे ही गदराने लगा, नमक के साथ सिलबट्टे पर पीसे जाने की नौबत आ गई। ये हवा के झकोरे तो कच्ची उमर के दुश्मन हैं। बहुतों का संसार तो असमय में ही छुड़ा देते हैं।)

दैव अगर मुँह फेर लें तो दुनियाँ भी सताती है। आमों को कोई ढेले से मारता है और कोई डंडा फेक कर मारता है। लोग आम का अचार डालते हैं आम के दर्द का कोई विचार नहीं करते। आम की जान तो सदा साँसत में रहती है।

दइब के फिरले दुनियवो सतावे

ढेला से मारे आ झटहा चलावे

छोड़लसि बिचरवा डरलसि अँचरवा

साँसति में परि गइल अमवाँ के जनवाँ

आई हो रामा, निझरि गइलें अमवाँ।

जो आम गिरने से बच गये वे पकने लगे, उनके रूप, रंग और स्वाद के क्या कहने! वे इस तरह पके और इस तरह चूने लगे कि बगीचों में मेला लग गया, जैसे नहान का पर्व आ गया हो। एक आम टपका कि पचास दौड़ पड़े। जिसका भाग्य चोखा था वह पा गया। फिर तो वह छाती फुलाने और जीभ चटकाने लगा, जैसे उसे कोई खजाना मिल गया हो!

कुछु दिन बितले जे गिरले से बाँचल

रूपे में, रंग में, सवादे में मातल

अइसन ऊ पकलें आ अइसन ऊ चुवलें 

कि मेला लगवलें लगवलें नहनवाँ

आई हो रामा, निझरि गइलें अमवाँ।


एक आम चूवे पचास जाने धावें 

भगिया के चोखगर जे रहे ऊ पावे

छाती फुलावें आ जीभि चटकावें

अइसन बुझा जइसे मीलन खजनवाँ

आई हो रामा, निझरि गइलें अमवाँ।

सूर्यदेव जैसे ही रोहिणी नक्षत्र में प्रवेश करते हैं, आम पकने लगते हैं। पछुवा हवा और लू की तपन मिट जाती है। सबका डेरा अब आम मी बारी में! बच्चों की आवाजाही बारी में! वहीं खटिया बिछ गई, वहीं मचान गड़ गये। कवि ने लिखा-

पहिली लवनिया में पाकल रोहिनियाँ

पछुआ आ लूहे के मेटल तपनियाँ

बारी में डेरा आ लइकन के फेरा

बिछि गइल खटिया गड़ाइल मचनवाँ

आइ हो रामा निझरि गइलें अमवाँ।

नगरों में तो फलों की दुकानें कलमी आमों से पटी पड़ी हैं। दशहरी, बनारसी, लँगड़ा (कपूरी), चैसा, अल्फांसो, सफेदा और बिहार का मीठा मालदह! ये आम प्रायः चाकू से काट कर खाये जाते हैं लेकिन बीजू आमों को खाने की रीति अलग है। शहरों के बच्चे क्या जानें कि आम के ऊपरी सिरे में ‘चोप’ नामक अम्लीय रस रहता है। उसे मुँह में लगा लिया तो ओठ में जलन हो सकती है। इसलिए आम का ऊपरी सिरा नोच कर पहले चोप निकाल देते हैं। इसके बाद आम को मुँह से लगा कर रस चूसते हैं। आम मीठा हो तो गुठली और छिलके में लगे गूदे को भी कौन छोड़ता है? फेंकते समय भी मन मारना पड़ता है।

भेंटिया निखोरें आ चोपवा के झारें

हाथे से दाबें आ मुँहे में गारें

चाटें अठिलिया बोकलवो ना छोड़ें

फेंके के बेरिया पछाड़ खाये मनवाँ

आइ हो रामा निझरि गइलें अमवाँ।

(भेंटी=आम का ऊपरी सिरा)

यहाँ बता दूँ कि ‘बाबरनामा’ में बाबर आम को अम्बा कहता है। उसने लिखा है कि अम्बा को ऊपर से निकोटते हैं और नीचे से पिलपिलाते हैं और मुँह में डाल कर चूसते हैं। वह कहता है कि ढेर सारे तो खट्टे होते हैं, मीठे वाले थोड़े ही मिलते हैं। लगता है उस जमाने में दशहरी, कपूरी या अल्फांसो जैसे मीठे कलमी आम नहीं थे। उसको बीजू आम ही खाने को मिले होंगे।

आम के मौसम में कोयल हो या कौवा, रूक्खी हो या सुग्गा, सारी चिड़ियों का बसेरा आम के पेड़ों पर ही होता है। पूरा गाँव आम की बहार लूटता है। आमों के पेड़ों में भाई-पट्टीदारों की हिस्सेदारी होती है। इसलिये आमों का बखरा (हिस्सा) लगता है। नातेदारों और हितैषियों के यहाँ भी आम भेजे जाते हैं। घर दुआर और आँगन-चारों ओर आम की सुगन्ध व्याप्त हो जाती है। कोई रोटी के साथ आम का गाद पी जा रहा है, कोई अमावट बनवा कर रखवा दे रहा है। कविता में इन बातों का भी वर्णन है।

आम का पूरा जीवन लोक को समर्पित है। जीते जी तो वह अमृत पिलाता ही है, जीवन की समाप्ति के बाद भी वह अपने धर्म-कर्म को नहीं छोड़ता। आज के लोग नहीं जानते कि गाँव के गरीब लोग जो आम की गुठलियाँ बीन कर भीतर के बीजों को सहेज कर रख लेते थे। गुठली के भीतरी भाग को कोइली कहते हैं। जैसे ही गेहूँ की किल्लत हुई, कोइली पीस कर उसकी रोटी बनने लगी। यह गरीबों की रोटी है जिसका स्वाद वे ही जानते हैं, अब तो वे भी नहीं जानते। कविता साठ साल पुरानी है। ‘आम के आम गुठलियों के दाम’ वाली कहावत का कुछ तो मर्म होगा!

बीनी बीनी कोइली जोगा के धराले

गोहूँ ना मीले त रोटी बेलाले

जियते जुड़वलें आ अमरित पियवलें

मुवलो पर राखें धरमवाँ करमवाँ

आइ हो रामा, निझरि गइलें अमवाँ।

गाँव के बच्चों के खिलौनों के बारे में शहरी लोग क्या जाने? शहरी बच्चों के खिलौने, वीडियो गेम और टेबलेट उन बिचारों के नसीब में नहीं है। गाँव के बच्चों सहारा तो आम है। गुठली फेंक दी गई, बरसात में उसमें से कोंपल फूटी। बच्चे दौड़े और उस गुठली को रगड़ कर सीटी (पिपिहरी) बना लिया और बजाने लगे! सच पूछिये तो आम का जीवन ही लड़के-लड़कियों के लिये था, मरने के बाद वह उनका साथ कैसे छोड़ दे?

जामलि अँठिलिया लइकवा धावें

कोई रगरि के पिपिहरी बनावें

जवने लइकवन की खातिर ऊ जियलें

अब कइसे छोड़िहें ऊ लइकन के संगवाँ

आइ हो रामा निझरि गइलें अमवाँ।

पता नहीं क्यों, वैदिक आर्यों और उपनिषदों के ऋषियों ने आम के वृक्ष को कोई विशेष आदर नहीं दिया। भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान भी आम के वृक्ष से लोक जीवन के जुड़ाव की ओर नहीं गया और उन्होंने गीता में ‘अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां’ कह कर पीपल को सर्वश्रेष्ठ वृक्ष घोषित कर दिया। भगवान् राम की भी निकटता आम के पेड़ से नहीं हुई। कतिपय विद्वानों ने ‘पंचवटी’ के पाँच पेड़ों में पीपल, बिल्व, बरगद, आँवला और अशोक को गिना लेकिन गोस्वामी तुलसीदास जी ने पंचवटी के वृक्षों में आम का भी नामोल्लेख किया। इतना अवश्य हुआ कि वैष्णव पद्धति की देवपूजा हेतु प्रयुक्त पंचपल्लवों में पीपल, गूलर, पाकड़ व बरगद के साथ आम के पत्तों को भी शामिल कर लिया गया। आम की लकड़ी हवन की समिधा में प्रयुक्त होती रही। शुभ अवसरों पर घर के प्रवेश द्वार को आम के बंदनवार से सजाया जाता रहा। इन कारणों से जनमानस के मन में आम के वृक्ष की महिमा और पवित्रता अक्षुण्ण रही।

दतुवन जो तूरे त रउराँ न बोलीं

डढ़ियो जो काटे त मुँहवों न खोलीं

रउरी पतइया से होले सइतिया

के रउराँ हईं बताईं मरमवाँ

आइ हो रामा निझरि गइलें अमवाँ।

{हे आम के वृक्ष! कोई दातून तोड़ ले जाय तब आप कुछ नहीं बोलते। यदि कोई डाल भी काट ले तब भी आप मुँह नहीं खोलते। आप की पत्तियों से पंडित जी साइत (शुभ कार्यारंभ) करते हैं। आप हमें बताइये कि (हम सबके लिये इतना त्याग करने वाले) आप कौन हैं?}

ग्राम्य जीवन में हर जगह आम के वृक्ष की उपस्थिति है। ब्याह का पीढ़ा (वर वधू के बैठने की पीठिका) हो, यज्ञोपवीत का खड़ाऊँ हो, बच्चों के लिखने की पटरी हो, दरवाजा, चैखट, खिड़की हो-इन सारी चीजों के जुगाड़ में आम ने अपना जीवन लगा दिया। कवि ने लिखा-

पीढ़ा बियहुती जनेवे खड़ाऊँ

पढ़े के पटरी आ चउकठ टिकाऊ

कोरो, बड़ेरी, दरवाजा आ जँगला

एही जोगाड़े में बीतल जनमवाँ

आइ हो रामा निझरि गइलें अमवाँ।

बारी के सारे आम झर चुके। अब लड़के भूल कर भी उधर नहीं जाते। राही बटोही भले आकर छाया में बैठ जाँय! हे आम के वृक्ष! आप ने इतना सब करके के क्या पाया? आपका जन्म किस लिये हुआ? इन बातों का क्या प्रयोजन है? कवि के शब्दों में-

बारी में लइके भुला के न जालें

राही बटोही जे आवें छहालें

का रउराँ पवलीं, काहे के जनमलीं

काहे के लागल बा ई कुलि कारनवाँ

आइ हो रामा निझरि गइलें अमवाँ।

अन्त में कवि आम के पेड़ के प्रति श्रद्धावनत् हो कर कहता है कि इस पागल दुनियाँ से क्या कहूँ? इन डालियों और पत्तों को अपने मन की बात क्या समझाऊँ? हे आम के वृक्ष! जी में आता है कि मैं आपकी पूजा करूँ और आपके चरणों को धो-धो कर पीऊँ!

दुनियाँ बउरही के का बतलाईं

डढ़ियन पतइयन के का समुझाईं

मन अइसन करुवे हम रउराँ के पूजीं

धोइ धोइ पी लेईं राउर चरनवाँ

आइ हो रामा निझरि गइलें अमवाँ।

स्व0 मोती बी. ए. की इस कविता में तेइस छन्द हैं। केवल बारह छन्दों का उद्धरण देने और कुछ बातें जोड़ने से इस प्रस्तुति का कलेवर विस्तृत हो गया है। केवल यह कह कर बात समाप्त करूँगा कि लोक से जुड़े कवि का ध्यान कामदेव के अमोध बाण के रूप में प्रसिद्ध ‘आम्र मंजरी’ की ओर नहीं गया, उसकी तो दृष्टि केवल आम के वृक्ष के साथ लोक जीवन के तादात्म्य पर टिकी रही।

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