समझना कुछ और बात है अच्छा लगना कुछ और ।
राम लखन लाल श्रीवास्तव एम.ए.एल.टी
यह शब्द एक घटना के रूप में डाक्टर शंभूनाथ सिंह ने उस समय कहे हे जब वे हमारे विद्यालय के प्रांगण में एक गोष्ठी में उपस्थित थे। घटना यह थी- किसी कवि गोष्ठी में डाक्टर साहब अपनी कविताऐं सुना रहे थे। श्रोता विभोर थे। उसी शिक्षित श्रोता-मंडल में एक अनपढ़ गँवार चरवाहा भी था। वह अभी रस-विभोर कुछ इस तरह मखमूर था मानो उनकी एक एक पंक्ति, एक एक शब्द सीधे उसके हृदय को छू रहा हो! उस तन्मयता देखकर डॉक्टर साहब से न रहा गया और उन्होंने उसे पूछ दिया- ‘भाई, क्या तुम्हारे समझ में आ रहा है?’ उत्तर मिला,- ‘समझ में कुछ नहीं आ रहा है लेकिन बड़ा अच्छा लग रहा है।’ डाक्टर साहब के मुख से ये शब्द वही निकल पड़े- ‘समझना कुछ और बात है, अच्छा लगना कुछ और।’
यह कोई अनहोनी घटना नहीं है। ऐसा अनुभव हम प्रतिदिन करते हैं। बहुत-सी बातें हम समझते हैं पर अच्छी नहीं लगती और बहुत सी बातें हमको अच्छी लगती है पर उन्हें हम समझते नहीं हैं। समझना मस्तिष्क की प्रक्रिया है और अच्छा लगना, हृदय की। हमारा जीवन व्यापार, कार्य-कलाप, बातचीत तथा अन्य छोटे-बड़े सभी आचरण इन दोनों प्रक्रियाओं से नियंत्रित होते हैं परंतु हमारे हर कार्य में दोनों प्रक्रियाओं का किस अनुपात में योगदान होता है इस पर मूलतः वातावरण का प्रभाव पड़ता है। जब हम कोई काम भली-भांति समझ कर करते हैं तो उसका परिणाम अनुकूल होता है। किसी बात को समझना उसके अनुकूल हो जाना है। एक अंग्रेजी उक्ति है - ज्व नदकमतेजंदक पे जव वितहपअम ंज ंसस ! जब हम कोई काम इसलिए करते हैं कि वह अच्छा लगता है समझ में आता हो या नहीं तो इसका परिणाम संदिग्ध होता है। समझने में अच्छा लगना खप जाता है। कितना अच्छा हो कि अच्छा लगने में समझना भी खपे। विष रस भरा कनक घट जैसे, क्या नहीं सुना है?
आज हमारे इर्द-गिर्द अनर्थों का साम्राज्य है। चोरी, डाका, कत्ल, चोर बाजारी, भ्रष्टाचार, युगधर्म हो गए हैं। यह सभी विचार के बाद किए जाते हैं। इन अनाचारों का इतना बोल बाला है कि इनको सुनकर, देखकर, हमारे भीतर कोई उद्वेग भी नहीं होता। ऐसी ही प्रतिक्रिया होती है जैसे कोई कीड़ा-मकोड़ा मरा हो। हमारा साहस मरता जा रहा है। खुशियों के अवसर दुर्लभ होते जा रहे हैं। आस्था बढ़ती जा रही है। अब कोई झाड़ा करे लेक्चर। ईश्वर में विश्वास करो का उपदेश कौन सुनता है?
मरहूम मौलाना अबुल कलाम आजाद की एक बात याद आती है- ‘खुदा की हस्ती का एतकाद, इंसानी फितरत के अंदरूनी तकाजों का जवाब है।‘ अंदरूनी तकाजे दबते जा रहे हैं और बेरूनी तकाजों के जवाब में हम जमीन आसमान एक किए जा रहे हैं। समस्या यहां उलझी है, निदान यहां ढूंढना है। अच्छाई को समझ से, समझ को अच्छाई से नोच फेंकने की क्या जरूरत?
आज वक्ता-श्रोता, नेता जनता, कर्मचारी, अधिकारी सभी एक स्वर से कहते हैं कि हम लोगों का नैतिक पतन हो गया है। भ्रष्टाचार बढ़ता जा रहा है। हर स्तर पर भ्रष्टाचार और गुंडागर्दी रोकने के लिए समितियां बनती है परंतु आदर्श और संकल्प के अभाव में यह शीर्ष अधिकारी और नेता भी इनको रोकने की बात कौन कहे कभी-कभी इन में स्वयं शरीक हो जाते हैं।कौन है यह ‘आया राम‘ और ‘गया राम‘ दलबदलू? समाज को दिशा देने वाले सामान्य दुर्बलताओं से आकांत होते जा रहे हैं। हमारी सड़के अवश्य चैड़ी होती जा रही है परंतु उन पर चलने वाले इंसान की इंसानियत सिमटती जा रही है। कितना अच्छा लगता चैड़ी सड़क पर सीना चैड़ा करके इंसान का चलना ? भौतिक विकास का यह सिलसिला खतम किये बिना खैरियत नहीं। ‘अच्छा‘ तब लगे जब बात पूरी पूरी समझ में आ जाय।
किंतु आज स्थिति यह है कि समाज का प्रत्येक वर्ग उस काव्य प्रेमी गवार चरवाहे की भाती समझ से दूर ‘अच्छा लगने‘ के चक्कर में फस गया है अच्छा लग रहा है खाक पत्थर जब अच्छाई की परिभाषा ही गोल है। विधा की स्थापना, चटकदार शैली ढूंढ निकालना,भड़कदार परिवेश गढ़ लेना किस अर्थ का जबकि संपूर्ण उद्देश्य रहित है। आज समाज का प्रत्येक वर्ग उद्देश्य-विहीन गया है। हमारी योजनाएं मोटी, भोथी और थोथी बातों से ऊपर की बात नहीं सोचती हैं। एक असंतुष्ट वर्ग चिल्लाता है ‘रोटी कपड़ा‘ दूसरा संतुष्ट वर्ग गरज कर बोलता है- ‘शांत रहो।‘ यह सभी ‘न समझने‘ और ‘अच्छा लगने‘ के करिश्मे है। डॉक्टर साहब ने किस अदा से सुन्दरतम को सत्यम के अंग से छील डाला है और शिवं की काल्पनिक कल्पना से स्वतः केवल स्वतः पुलकित है, ताज्जुब की बात है। ‘समझना कुछ और बात है, अच्छा लगना कुछ और‘ -यह डॉक्टर नहीं बोल रहे हैं, युग-पुत्र बोल रहा हैं। डॉक्टरों और आज के आचार्यों, विशेषज्ञों और जमातों के करोड़ों कण्ठों से स्वयं युग चिल्ला रहा है। गाड़ी ढलाव पर तेज चलती ही है। उद्भ्रांत समाज ब्रेक बांध कर नहीं दोनों हाथ छोड़कर और पैडल मारते हुए स्पीड बढ़ा कर चल रहा है। दुर्घटना होकर रहेगी। अच्छा जरूर लगता है मगर समय से काम लो। यही कारण है कि हमारी कल्पना सत्यम, शिवं सुंदरम के रूप में आज समाज को गढ़ने का आदर्श समझी जाती रही है। इसमें से किसी को भी एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है। जो अच्छा लगे वही न समझो, जो समझो वह अच्छा लगे तब बात बनेगी। सत्यं और सुन्दरम को अन्योन्याश्रम सम्बन्ध से ही शिवं की अनुभूति होगी।
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