गाॅव में लहलहाते सोने के भाग्यविधाता घर आवो
दिव्याँका कलेक्शन
लन्दन सम्पदा प्रतिनिधि की प्रस्तुति
गाँव चिल्ला-चिल्ला कर इन्हें रोकता रहा, पर ये नहीं रुके। ये गँाव के नहीं हुए, शहर ने इन्हें अपना नहीं माना।
इस कोरोना के बाद क्या होगा, कह नहीं सकता। पर जाने क्यों लग रहा है कि गाँवों के दिन लौटेंगे।
सरकारी लाॅकडाउन है, पर खेत खनखना रहे हैं। चईत-बैशाख के महीने में खेत नई दुलहिन के आंगन की तरह हो जाते है। गेंहू काटती औरते बिना पायल पहने आती हैं, फिर भी घुंघरू बजते रहते हैं। गंेहू की बालियों की खनक किसी नवविवाहिता के कंगनों की खनक से कई गुना मधुर होती है। इस साल छोटे किसानों के खेत में तो हँसुआ चल रहा है, पर बड़े किसानों के खेत के हिस्से में यह सौभाग्य नहीं है। बड़े खेतों की छाती पर कम्बाइन के छुरियों की तेज धार हड़कम्प मचाये हुए हंै। खेतों की छाती दहल उठी है, पर क्या करें.....
गाँव का कोई किसान कम्बाईन मशीन से कटनी कराना नहीं चाहता। आजकल गेंहॅू के बराबर दाम पर भूसा बिकता है, पर कम्बाइन से काटने पर भूसा नहीं मिलता। ऊपर के डंठल जलाने के लिये खेतों में आग अलग लगानी पड़ती है। सब जानते हैं कि खेतों में आग लगाना अशुभ होता है, पर क्या करें? कौन करे कटनी, कहाँ से आये मजदूर...?
गांव में अब मजदूर नहीं मिलते। सारे मजदूर दिल्ली-बाम्बे जैसे शहरों में फँसे हुए हैं। डंडे खा रहे हैं, गालियां सुन रहे हैं, बेकार होकर फ्लाईओभर के नीचे पड़े हुए हं। उनके पास न अन्न है, न पानी। उनके लिये न किसी के अंदर संवेदना है, न सहानुभूति.....
गाँव चिल्ला-चिल्ला कर इन्हें रोकता रहा, पर ये नहीं रुके। शहर के चैराहों पर सुबह-सुबह भीड़ लगा कर काम मांगते रहे, उनकी पत्नियां आठ-आठ घरों में बर्तन माँजती रहीं, गाँव का अच्छा घर-दुआर छोड़ कर शहर के गंदे, बदबुदार इलाके में टीन के घरांे मे समय काटते रहे पर गँाव अच्छा नहीं लगा। ये गँाव के नहीं हुए, शहर ने इन्हें अपना नहीं माना। फिलहाल वे कहीं के नहीं.....
गँाव यह नहीं कहता कि शहर में काम करने वाले सारे लोग वापस लौट आएं, पर जिनके पास शहर में न सम्मानजनक काम है न सम्मानजनक जीवन, वे शहर में क्यों हैं? उनके लिए गाँव काम भी है और अपेक्षाकृत सुखी और सम्मानजनक जीवन भी......
पर वे नहीं आएंगे। पिछले दस-बीस वर्षों में बाजार ने उनके दिमाग में यह भी भर दिया है कि खेत का काम, काम नहीं है। गाँव का काम, काम नहीं है। वे गए हैं ताकि गाँव को बता सकें कि हम सम्मानित शहरी हैं। उनकी स्त्रियाँ गयी हैं ताकि अपने नइहर की सहेलियों को बता सकें कि हम बाम्बे में रहते हैं।
गाँव अभी इतने भी अक्षम नहीं हुए कि रोटी, कपड़ा और मकान न दे सकें। गँाव टीबी, फ्रीज, एसी, कार सब दे रहे हैं। मेहनत कीजिये तो सब मिलेगा......
मैं विदर्भ या बुंदेलखंड को नहीं जानता, पर पूर्वांचल को जानता हूॅ। यहाॅ के गाँव सशक्त हैं, पूर्ण हैं.....
इस कोरोना के बाद क्या होगा, कह नहीं सकता। पर जाने क्यों लग रहा है कि गाँवों के दिन लौटेंगे। ईश्वर करें..........
0 Comments