कलम आज अनकी जय बोल
बरहज पैना रोड पर स्थित शहीद स्मारक शहीद विश्वनाथ मिश्र और जगन्नाथ मल्ल पर अंग्रेजो द्वारा किए गये भीषण यातना की दास्तान ।
शासन के संज्ञान में नहीं, इतिहास से दूर ।
-अंजनी कुमार उपाध्याय
पं. विश्वनाय मिश्र एवं जगन्नाथ मल्ल ये दोनो शहीद बाबा राघवदास की कर्म स्थली बरहज आश्रम के लगभग तीन मील पश्चिम तथा उत्तर स्थित ग्राम कुहंघरसिया एवं बरौली के निवासी थे। दोनो जवान थे। दोनों में कुछ कर दिखाने की ललक थी। और थी देस-हित मर कर अमर हो जाने की अटूट अभिलाषा। ये दोनो जन्मना थे। विद्रोही थे। और थे क्रंातिकारी भावना के उज्ज्वल प्रतीक। इन दोनों ने घर से ही इस विद्रोही और क्रांतिकारी भावना का मशाल जलाना प्रारम्भ थे। इस दोनों घर से ही इस विद्रोही और क्रांतिकारी भावना का मशाल जलाना किया था। फिर भी बाद में उसकी ज्योंती इन की वजह से बर्मा तक पहुंची। इनकी जीवन ज्योंती के साथ-साथ वह मशाल बउ़ी तेजी के साथ जलता रहा। सन् 1942 मैं पैना बरहज रोड पर एकत्र एक बडे़ प्रदर्शन में कैप्टन मूर की गोली ने इनकी इहलीला समाप्त कर दी दोनों का पार्थिव शरीर तो समाप्त हुआ अवश्य, पर उनके विचार और जीवन-दर्शन अमर हो गये। आंदोलन में कमी की जगह वृद्धि हो गयी। आज मृत्यु स्थल पर एक अमर स्मारक बना हुआ है। लोग उसका दर्शन करते ह । फूल मालाएं चढ़ायी जाती हैं।
अमर शहीद पं. विश्वनाथ मिश्रः-
माँ भारती के अमर शहीद श्री पूण्य सलिला सरयू और राप्ती के संगम पर स्थित ग्राम कुहपरसिया में 10 जुलाई सन् 1917 को एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे। यह गांव उत्तर प्रदेश के देवरिया जनपद के दक्षिणी अंचल में स्थित है। इनके पिता श्री लक्ष्मी मिश्र थे। उनके तीन पुत्र थे। प्रथम पुत्र श्री जटाधारी मिश्र द्वितीय श्री विश्वनाथ मिश्र, और तृतीय थे श्री यदुनन्दन मिश्र । इस प्रकार श्री विश्वनाथ मिश्र अपने पिता के दूसरे लड़के थे। इनकी प्रवृत्ति बचपन से क्रंतिकारी थी। सहयोगी थी। और थी सुधारवादी। इनकी प्रराम्भिक शिक्षा प्राथमिक पाठशाला कपरवार देवरीया में पूर्ण हुई। अग्रिम शिक्षा-दीक्षा के लिए ये आश्रम बरहज में आये। कक्षा आठ तक की विधिवत शिक्षा दन्होंने प्राप्त की यों स्वाध्याय के अल से इन्होेंने संस्कृत, उर्दू और फारसी का अच्छा ज्ञान भी हासिल कर लिया था। जिन दिनों ये आश्रम बरहज में शिक्षा पा रहे थे उन्ही दिनों ये गांव-गांव से चिटुकी माँग कर क्रांतिकारीयों और स्वतंत्रता सेनानियों की मदद भी करते थे। अपने तथा दूसरे गाॅवों में जा जाकर मीटिंग करते थे। लोगों को स्वावलम्बन का पाठ पढ़ाते थे। होनहार विरवान के होत वीकने पात’ वाली बात श्री मिश्र के साथ अक्षरशः वरिताथं थी। अडोस अड़ोस की सीमा जब बालक श्री मिश्र के विचारों के लिए संकीर्ण प्रतीत होने लगी तब यह अपनी क्रांतिकारी भावनाओं के साथ सन् 1635 में बर्मा गये। वहां तीन वर्षोतक लगातार अपने विचारों का प्रचार करने रहे। अन्त में सन् 1638 में अपने उग्र विचारा के कारण ही इन्हें बर्मा से पुनः वापस आना पड़। सन् 1940 में इनकी शादी सरस्वती देवी से करा दी। 1941 में गवना हुआ और 1942 में ये शहीद हो गये। सच है ईश्वर अपने प्यारों को बन्धन में नहीं रखना चाहता है। इस प्रकार पच्चीस वर्ष की अल्पायु में श्री मिश्र ने अपनी मातृ-भूमि की सेवा में अपना जीवनोत्सर्ग कर क्रांतिकारियों के इतिहास में अमर ठवि प्राप्त कर लिया। आपके जीवनोत्सर्ग के बाद आपकी विधवा धर्मपत्नी श्रीमती सरस्वती देवी को तत्कालीन जिलाधीश श्री सी.वी. दुबे आई.ए.एस. द्वारा राजनीतिक पीड़ि़त का प्रमाण-पत्र प्रदान किया गया। फिर उनके जीवन-निर्वाह हेतु पेंशन की धनराशि सन् 1948 में पन्द्रह रुपये सन् 1951 में साढ़े बाईस रुपये सन् 1959 में तीस रुपये और सन् 1962 में पचास रुपये की दर से मिलती रही। सन् 1964 में उनकी धर्मपत्नी भी उनकी विरहाग्नि में घुलती घुलती एक दिन इस संसार से चल बसी। पेंशन बन्द हो गयी। पेंशन पास बुक नं. 5040 के आधार पर मिलती रही।
पं. जवाहरलाल नेहरू श्री विश्वनाथ मिश्र को अपना परम सहयोगी स्वीकारते थे। उनके द्वारा उन्हें उनकी निष्ठापूर्वक देश-सेवा हेतु एक तगमा भी दिया गया था। देश सन् 1947 में आजाद हुआ। जब पं0 नेहरू की सरकार बनी तब पेंशन का बकाया धन श्री मिश्र के बड़े भाई श्री जटाधारी मिश्र के दो पुत्रों-प्रथन श्री श्याम बिहारी मिश्र और द्वितीय श्री सतीशचन्द्र मिश्र को मिला। चुंकी श्री मिश्र आने पिछे मात्र विधत्रा को छोड़ कर किसी और पुत्र-पुत्री को नहीं छोड़े थे। अतः बड़े भाई के परिवार वाले विधवा श्रीमती सरस्वती देवी की सेवा टहल करते रहे। आज भी श्री मिश्र के बड़े भाई तथा छोटे भाई का परिवार भरा पूरा है। सब लोग अपनी-अपनी छमता के अनुसार आत्म-सेवा, जन-सेवा और देश-सेवा में लगे हुए हंै। इस हंतु सरकार ने बरहज-रुद्रपुर जाने वाले राजमार्ग से कुर्हपरसियां को जोड़ने वाली निर्माणधीनः सड़क का नाम विश्वनाथ मार्ग करने का प्रस्तव किया है।
अमर शहीद श्री जगन्नाथ मल्लः-
श्री मल्ल देवरिया जनपद के बरौली ग्राम के एक सम्भ्रान्त परिवार में पैदा हुए थे। इनके पिता श्री प्रयाग मल्ल गांव के एक अच्छे खेतिहर थे। यह अपने पिता के दो पुत्रों में छोटे लड़के थे। कुर्हपरसियां के जीवित क्रांतिकारी श्री हरष राय से ज्ञात हुआ है कि जगन्नाथ मल्ल बचपन से ही विद्रोही भाव के थे। किसी प्रकार का बन्धन उन्हें अगीकार नहीं था। उनकी विद्रोही भावना के कारण ही उनके परिवार वालों ने उन्हें घर से निकाल दिया था। समय, नदी, जीवन और काव्य की धारा को कब किसने रोका है? श्री मल्ल की जीवन की धारा इस गृह-त्याग से रुक न सकी। वह उन्हें वहा तक ले गयी जहां तक उन्हें पहुॅचना था। यह 18 या 16 का तरुण क्रांतिकारी भावों का दीपक जलाना चाहता था। जलाया। घर से भागकर मौत को अपनी मुठ्ठी में बाधें उसने भलुअनी पोखरे पर जवार के क्रांतिकारी विचारों वाले युवकों का एक दल तैयार किया अपना कार्यस्थल वहीं बनाकर वह घुम-घुम कर अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंकने की योजना बनाने लगा। इस लक्ष्य को साधने में वह
ठतना दीवाना हो गया कि वह सांसारिक बंधन में न पड़ सका। कई लड़की वालांे ने उसकी शादी चाही। परन्तु तरुण मल्ल के सामने भारत माता का बन्धन दिखाई दे रहा था मां बन्धन में छटपटातीरहे और वह भोगरत हो, यह उसे साध्य नहीं था। अतः वह शादी क्यों और कैसे करे? शादी को उसकी दृष्टि में बरबादी थी। एक अबला को सबला नहीं बनाना था। तरुण मल्ल के विचारों से जरार के श्री लाल बिहारी सिंह बड़े अभिभावक थे। उसकी भरपूर सहायता करते रहे। अभी वह क्रांतिकारी की हवा बनाने में ही मशगूल था कि सन् 1942 में ब्रिटिश सरकार ने बड़े-बड़े नेताओं को गिरफ्तारियां प्रारम्भ कर दी। पूज्य बाबा राघवदास जी ने आश्रम बरहज की ओर से इसका कड़ा विरोध प्रदर्शित करने के लिये क्षेत्र के लोगों से आव्हान किया। प्रदर्शन थाना घाट बरहज से प्रारम्भ होने वाला था। प्रदर्शन में भाग लेने के लिए पैना, करजहां, बिजौली, कपरवार, कुर्हपरसियां, सोनाड़ी, तरौली और बरौली आदि गाॅवों के लोग भारी संख्या में एकत्र हुए। कुछ ने इसकी सूचना जिलाधीन को दे दी। फिर क्या पूछना था सरकार और सरकारी तंत्र इस प्रदर्शन का कड़ाई के साथ दमन करने पर उतारू हो गया। शरफरोशी की तमन्ना के लिए येन-केन प्रकारेण जुलूस सरयू घाट से चला। बाजुए कातिल को आज-माने बरहज-पैना रोड तक पहुॅचा भी नहीं था कि दमनार्थियों का दमन चक्र शुरु हो गया। दनादन गोलियां चलने लगी। जुलूस की अगुवाई दो तरुण क्रांतिकारी बड़े हौंसले के साथ कर रहे थे। प्रथम थे विश्वनाथ मिश्र और दूसरे थे श्री जगन्नाथ मल्ल। तत्कालीन जिलाधीन कैप्टन मूर की गोली चली और दोनों जवान क्रांति का दांस्ता कहते-कहते सर्वदा के लिए सो गये। भीड़ तितर-बितर हो गयी। भगदड़ मची। सरकारी तंत्र ने इन दोनों शहीदों को उत्तेजित भीड़ पर काबू रखते हुए देवरिया पहुॅचाया। बड़ी कोशिश करने पर श्री मिश्र की लाश तो 6 दिनों बाद प्राप्त हुई परन्तु श्री मल्ल की लाश प्राप्त न हो सकी।
इस तरह ये दोनों जवान देशहित मरना चाहते थे,मरे। उन्हें इच्छित मृत्यु मिली। वे मरकर अमर हो गये। वे आजादी के महल की नींव की ई ंट बन गये। आज प्रसाद दिखाई दे रहा है। परन्तु जिन आधार भूत तत्वों पर स्वतंत्रता का भवन तैयार है वे हैं शहीद विश्वनाथ मिश्र और जगन्नाथ मल्ल सरीखे लोग। ये स्मरण करने योग्य हैं। ये धन्य हैं। ये पूज्य हैं। मरे नहीं हैं जीवित हैं। बल्कि ये सदा-सदा के लिए अमर हो गये हैं।
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